उम्मीदों की बरसात करने वाली पुस्तक है- फैसले जो नज़ीर बन गये 

भारतीय न्यायपालिका की स्वायत्तता एवं निष्पक्षता को लेकर चाहे न्यायविदों, राजनीतिज्ञों या आम आदमी के बीच जितनी भी बहस होती रही हों या समय-समय पर देश के वरिष्ठ न्यायाधीशों द्वारा न्यायपालिका पर गंभीर टिप्पणियां की जाती रही हों, पर सच यह है कि भारतीय जनता न्याय के लिए अंततः सर्वोच्च न्यायालय की ही बांट जोहती है। निचली अदालतों से लगातार निराश हुए व्यक्तियों व समूहों को भी सर्वोच्च न्यायालय से ही समय-समय पर राहत मिलते रहा है। यही कारण है कि आज भी भले जिस रूप में भी, भारतीय लोकतंत्र की शाख बची हुई है। लोकतंत्र की अनिवार्य शर्तों में यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि समाज के हर तबके को समुचित अधिकार प्राप्त हों, ताकि गरिमा के साथ जीवन जीने की आदर्श स्थितियों की निर्मिति हो सके। जब-जब इस पर खतरा मंडराया है, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसलों से सत्ताधीशों को खबरदार कर पीडि़तों को राहत प्रदान करते हुए उम्मीदों की किरणों को और गाढ़ा किया है।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समय-समय पर दिये गये फैसले ही भारतीय नागरिकों को संविधान व कानून का समय-समय पर अहसास कराते हुए बुझते उम्मीदों को जिंदा रखते आये हैं। भारतीय नागरिकों की जिंद़गी से अभिन्न रूप से जुड़े हुए विभन्न मसलों पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हाल-फिलहाल दिये गए फैसलांे को केन्द्र में रखकर लिखे अपने आलेखों को संकलित कर ज़ाहिद भाई ने एक बड़ी ज़रूरत पूरी कर दी है, विशेष कर नवउदारीकरण के दौर मेें दिए गये फैसले, जब आम नागरिकों के हक-अधिकारों पर हमले तेज हो गए हैं। आर्थिक सुधार के नाम पर लागू की गई नीतियों की असलियत सामने आते जाने से प्रतिरोध के स्वर भी तेज हो रहे हैं। और दूसरी ओर खास एजेंडें को लागू करने के लिए बनाई गई नीतियों को धरती पर उतारने के लिए, जब सत्ता मानवाधिकार, लोकतंत्र, मौलिक अधिकार, शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे मुद्दों को दर किनार कर हमलावर बन गई है, तब सर्वोच्च न्यायाल के फैसले आम नागरिकों को राहत के साथ ही लड़ने का साहस प्रदान करते हैं। इन्हीं सब फैसलों को सामने लाने के लिए समय-समय पर अपने द्वारा लिखे गए आलेखों को जन सरोकार से अभिन्न रूप से जुड़े, जनपक्षीय व न्याय के पक्षधर ज़ाहिद भाई ने संकलित कर पुस्तकाकार में सामने लाकर उम्मीदों की बरसात कर दी है।़

आम आदमी की जिंद़गी से जुड़े हर वे महत्वपूर्ण मसले इस पुस्तक में विद्ययमान हैं, जो मानव जीवन को गहरे रूप से प्रभावित करते हैं। पुस्तक में अलग-अलग मुद्दों पर फैसलों पर आधारित आलेखों को कई खंडों में विभाजित कर प्रस्तुत किया गया है ताकि एक जैसे मसलों से जुड़े फैसलों को एक ही जगह आसानी से जगह मिल सके। पुस्तक को मानवाधिकार के पक्ष में, निष्पक्ष एवं पारदर्शी चुनाव, लोकतंत्र की बहाली, आम आदमी के पक्ष में, किसानों के पक्ष में, शिक्षा सुधार, भारतीय भाषाओं कि हित में, भ्रष्टाचार के विरोध में, नौकरशाहों के पक्ष में के साथ ही आधी आबादी, महिलाओं से जुड़े मसलों पर दिये गऐ फैसलों के बीच वर्गीकृत कर सजाया गया है। ताकि हर मुद्दों पर दिये गए फैसले से आम आदमी अवगत हो सके। इस पुस्तक की एक बड़ी विशेषता इसका हिन्दी में होना है। प्रायः कानून संबंधी सारी जानकारियां या फैसले अंग्रेजी में ही होते हैं, जो आम आदमी की समझ व पहंुच से दूर होते हैं। इसलिए आम आदमी के उपयोग की दृष्टि से यह पुस्तक काफी उपयोगी है। पुस्तक में शामिल किया गया पहला आलेख ही मानवाधिकार के पक्ष में देशद्रोह कानून के दुरुपयोग को रोकने पर दिये गए ऐतिहासिक फैसले पर आधारित है। यों तो मानवाधिकार से जुड़े कई मामले यथा अपराधिक मानहानी कानून की समीक्षा, मुजरिम को सुधरने के अवसर,  विचाराधीन कैदियों की रिहाई, फर्जी मुठभेड़ पर रोक, पुलिस के व्यवहार व जवाबदेही, संवैधानिक संस्थानों की अनदेखी, मीडिया ट्रायल, लम्बे समय तक जेल में रहने के बाद निर्दोष घोषित होने, गैर न्यायिक हत्या व माॅब लिंचिंग जैसे मामले पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए हाल के फैसलों को सामने लाया गया है। सभी विंदुओं पर कोर्ट के आदेश को विस्तार से आलेख में रख कर आम जनता की जानकारी को पुख्ता करने का काम जाहिद भाई ने किया है। इन फैसलों का महत्व इस कारण भी बढ़ गया है क्योंकि हमसब संकट के दौर से गुजर रहे हैं। सत्ता व इसके आकाओं द्वारा जब राजनीति की नई भाषा, मुहावरे, बिंब, प्रतीक, उपमा या राष्ट्रवाद व देशद्रोह का ताजातरीन ‘आख्यान’ प्रस्तुत किये जा रहे हैं, तब खतरा और बढ़ता जा रहा है। ऐसे समय में सिर्फ और सिर्फ नजरे सर्वोच्च न्यायालय पर ही टिकती हैं। 

देशभक्ति व राष्ट्रवाद की नई परिभाषा सामने रखते हुए सत्ता देशद्रोह को एक अस्त्रा के रूप में प्रयोग कर रही है। ब्रिटिश राज में, 1860 में सामने आये देशद्रोह/राजद्रोह कानून 124-ए के तहत धड़ल्ले से मुकदमे दायर हो रहे हैं। असहमति को दबाने के लिए देशद्रोह जैसे अस्त्र का प्रयोग किया जा रहा है। मुकदमों की संख्या से ही अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि इसका कितना सही प्रयोग हो रहा है। ऐसी स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले हमें सुकून व उम्मीद देते हैं। जाहिद भाई ने मौजूदा समय के लिए ज्यादा उपयोगी सिद्ध होने वाले फैसलों को एकसाथ सामने लाकर असहिष्णुता और असुरक्षा के माहौल से उत्पन्न चुनौतियों से निपटने का ताबीज दे दिया है। जाहिद भाई ने पुस्तक में सिर्फ आलेख को ही संकलित नहीं किया है बल्कि उस विषय के ऐतिहासिक संदर्भों से भी परिचत कराया है। पाठक संबंधित विषय पर दिये गए फैसलों से तो अवगत होते ही हंै, साथ ही उस विषय के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के साथ ही जरूरी पहलुओं से भी अवगत हो जाते हंै। इस तरह से इनके आलेख न सिर्फ फैसले हैं बल्कि उसकी जरूरत, उसकी पृष्टभूमि, ऐतिहासिक संदर्भ सहित अन्य पहलुओं पर भी समझदारी बढ़ाते नजर आते हैं। इसी की अगली कड़ी में जेल में बंद कैदियोें से जुड़े सवाल भी कम मौजू नहीं हैं। आज जब हमारे देश के जेल क्षमता से अधिक कैदियों को रख कर उन्हें जानवरों की भांति जीवन जीने को मजबूर कर रहे हंै। ढाई लाख से अधिक लोग आज भी विचाराधीन कैदी के रूप में जेल में बंद हैं। इनमें से अधिकांश कैदियों को सजा मुकरर्र नहीं हुई है। बंद इन कैदियों में से कई के तो खोज-खबर लेने वाला कोई नहीं है। विचाराधीन कैदियों की संख्या में दिनों-दिन इजाफा से सर्वोच्च न्यायालय भी चिंतित है। न सुनवाई और न ही कार्यवाही, सिर्फ तारीख-दर तारीख। नतीजा लम्बे समय से बेवजह कैद। इसका कारण निचली अदालतों का संवदेशनशील नहीं होना भी बताया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने चिंता जाहिर करते हुए निचली अदालत को निर्देश दिया था कि अपने-अपने क्षेत्र की प्रत्येक जेल का दौरा कर पता लगायें कि कैदियों के खिलाफ लगाये गए आरोपों के लिए तय सजा की आधी अवधि कितनी ने पूरी कर ली है। ऐसे कैदियों को तत्काल रिहाई करें। निर्देश का कितना अनुपालन हुआ यह तो अलग विषय है लेकिन जाहिद भाई ने आलेख भी इस बात का जिक्र कर पहले से कानूनों के पालन नहीं होने की ओर भी पाठकों का ध्यान खींचा है। ऐसा नहीं है कि पहले से विचाराधीन कैदियों के लिए कोई प्रावधान नहीं है। दंड प्रक्रिया की धारा 436-ए ं विचाराधान कैदी को अधिकतम अवधि तक हिरासत में रखने के बारे में है। इस कानून में प्रावधान है कि यदि ऐसा कैदी अपने अपराध की अधिकतम सजा की आधी जेल में गुजार चुका हो, तो अदालत उसे निची मुचलके पर या वगैर किसी जमानती के ही ही रिहा कर सकती है। लेकिन सच्चाई यह है कि निचली अदालत में बैठे न्यायिक अधिकारी इसका प्रयोग नहीं ही करते। ऐसे सभी गंभीर स्थितियों पर जाहिद भाई सबका ध्यान आकृष्ट करने से नहीं चुकते। कमोवेश यही हाल मुठभेड़ के नाम पर हो रही हत्याओं का भी है।

सर्वोच्च न्यायालय ने मानवाधिकार की सुरक्षा के पक्ष में फैसला देते हुए समय-समय पर कई दिशा निर्देश जारी किये हैं। अभी देश के पूर्वोत्तर राज्यों, काश्मीर के साथ ही प्राकृतिक संसाधनों से भरे आदिवासी राज्यों में जिस तरह प्रतिरोध को दबाने के लिए मुठभेड़ के नाम पर हत्याएं हो रही हैं, इससे जुड़े फैसले पुलिस पर अंकुश लगाने के काम आयेंगे। पुस्तक में दूसरा बहुमूल्य नगीने के रूप में जाहिद भाई ने चुनाव से संबंधित दिये गए फैसले को रखा है। प्रजातंत्रा में चुनाव के माध्यम से ही कोई सत्ता के शिखर तक पहुंचता है और सत्ता सम्हालता है, व्यवस्था को अपने हिसाब ने संचालित करता है। आज जब निष्पक्ष व पारदर्शी चुनाव का मुद्दा दुनिया भर में चर्चा का विषय बना हुआ है तब सर्वोच्च न्यायालय का फैसला उम्मीद जताता दिखता है। चुनाव में धर्म, जाति, पैसा के साथ ही अपराधियों का बोलबाला समान्य बात हो गई है। अपनी पार्टी व नेता का चेहरा चमकाने के लिए विज्ञापन आज मुख्य साधन बन गया है। इस पर न्यायालय ने सरकारी फंड से जारी होने वाले विज्ञापनों के लिए मापदंड व शर्त का निर्धारण किया है।साथ ही अदालत से सजा पाये सांसदों या विधायकों की सदस्यता समाप्त होने की बात भी कही गई है। सर्वोच्च अदालत ने राजनीति में धर्म के इस्तेमाल पर पूरी तरह रोक लगा दिया है। आज जब राजनीति के केन्द्र में धर्म ही रच-बस गया है तब कोर्ट का यह फैसला काफी महत्व रखता है। संवैधानिम पीठ ने चुनाव में धर्म व जाति के प्रयोग पर रोक लगा दिया है। जाहिद जी ने पूरे विस्तार से अदालत के आदेश को आलेख में उकेरा है ताकि स्थिति स्पष्ट हो सके। आज जब सार्वजनिक स्थानों पर धार्मिक ढाचे बनने का प्रचलन काफी बढ़ गया है, तब इस पर रोक लगाकर कोर्ट ने एक पुरानी मांग पूरी कर दी है। न्यायाल ने कहा है कि किसी भी सार्वजनिक स्थल पर धार्मिक ढोचे का निर्माण होता है तो इसकी जिम्मेवारी संबंधित जिलाधिकारी व पुलिस अधीक्षक की होगी। 

पहले जहां 25 लाख के करीब पूजास्थल/इबादतगाहें थीं आज उनकी संख्या बढ़ गई है। इसलिए इस पर रोक लगाना समय की मांग थी। पूरे देश विशेष कर पूर्वी भारत के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में पाये जाने वाले खनिजों व यहां की प्राकृतिक संसाधनों के दोहन व लूट पर सरकार व जनता आमने-सामने हैं। जनता किसी कीमत पर अब विस्थापित होने को तैयार नहीं है। ऐसी स्थिति में पेसा कानून के मद्दे नजर ग्राम सभा को सबसे मजबूत प्रशासनिक इकाई के रूप में मान्यता देकर जनता की लड़ाई को सही करार दिया है। ग्राम सभा के इजाजत के बिना कोई कम्पनी उस क्षेत्रा में खनन या कोई भी काम नहीं कर सकती। उड़ीसा के नियमगिरी पहाडि़यों से वेदांता का जाना इसी फैसले का परिणाम है। जनता को जब कानूनी कवच की जरूरत है, तब सर्वोच्च न्यायालय ने उनके हक में फैसला देकर उन्हें उजड़ने से बचा दिया है। इस तरह निजता के अधिकार पर भी महत्वपूर्ण फैसला दिया है। आधार कार्ड को एच्छिक बताते हुए किसी सरकारी योजना के लाभ से वंचित नहीं करने का आदेश दिया है। देश भर से भूख से मौत की खबरों के बीच भोजन के अधिकार को सही तरीके से लागू करने का आदेश दिया है। इसी तरह किसानों के पक्ष में भी कई फैसले सर्वोच्च अदालत से हुए हैं। चाहे सिंगूर की जमीन की बात हो या सूखे की कोर्ट ने किसानों को निराश नहीं किया है। इसी तरह शिक्षा के व्यापकता व विस्तार के साथ ही प्राथमिक शिक्षा में सुधार की जरूरत पर कोर्ट ने बल दिया है। सुविधाओं के साथ ही गुणवत्ता के सवाल पर कोर्ट ने सरकार को फटकार लगाया है। शिक्षा के निजीकरण के इस दौर में निजी मेडिकल काॅलेजों व शिक्षण संस्थानों की मानमानी पर भी अंकुश लगाने का काम सर्वोच्च अदालत ने किया है। भाषा की महत्ा को मान्यता देते हुए पसंद की भाषा में प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करने का आदेश कोर्ट दिया है। देश के साथ ही समाज के लिए नासूर बन चुके भ्रष्टाचार पर हथौड़ा कोर्ट ने चलाया है।इस पर नियंत्राण के लिए लोकपाल की नियुक्ति में हो रही देरी पर सरकार को फटकार लगाई है। इसी तरह अवैध खनन के साथ ही अन्य कई महत्वपूर्ण मसलों पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गए फैसलों पर पुस्तक में जानकारी दी गई है। देश की आधी आबादी जिस पर अपसंस्कृति की मार सबसे ज्याद पड़ रही है। महिलाओं की सुरक्षा के साथ ही कुपथाओं पर भी सर्वोच्च न्यायालय की नजर टेढ़ी रही है। देवदासी प्रथा पर रोक लगाते हुए महिलाओं व बालिकाओं की सुरक्षा के लिए कई आदेश व नियमन कोर्ट ने दिये हैंे।

महिला-पुरूष की बराबरी, कन्या भ्रूण हत्या, लैगिक समानता, खाप पंचायत, तीन तलाक, मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता, शरीयत अदालतों के फैसलों, मुसलिम ख्वातीन जैसे जिंदगी से जुड़े मसलों पर सर्वोच्च न्यायालय के दिये गए फैसले पर भी पूरी जानकारी पुस्तक में दी गई है। इस मामले में यह पुस्तक दूसरी पुस्तकों से भिन्न है क्योंकि कानून की पुस्तक नहीं होकर भी कानून की बात पूरी किताब में भरी पड़ी है। इसके सहारे कई जानकारियां मिलती है, जिससे समझदारी तो बढ़ेगी ही जिंदगी में बदलाव भी सुलभ हो पायेंगे। इस तरह जाहिद भाई की यह पुस्तक बेहद उपयोगी व पठनीय है, विशेष कर उनके लिए महत्वपूर्ण साबित होगी जो समाजिक सरोकार से जुड़े हैं, मानवाधिकार की बहाली पर काम करते हैं, कानून की समझ रखने में रुचि है। यह अधिवक्ताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ ही बुद्धिजीवियों के लिए भी उपयोगी साबित होगी। एकबार इसे जरूर पढ़े ताकि महत्वपूर्ण मसलों पर न्याय के पक्ष में राय व्यक्त कर पायें। सारी विशेषताओं के बावजूद एक कमी जो बेहद खटकती है, वह है फैसले की तिथि व मुकदमा नम्बर का नहीं होना, जिसमें संबंधित विषय पर फैसला दिया गया है। ऐसा होने से पुस्तक और भी उपयोगी सिद्ध होती।

पुस्‍तक समीक्षा : अरविन्द अविनाश

पुस्तक का नाम- फैसले जो नज़ीर बन गये। लेखक- ज़ाहिद खान प्रकाशक- उद्भावना, एच-55, सेक्टर 23, राजनगर, गाजियाबाद मो। 9811582902 मूल्य- 125 रुपये मात्र। 

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