बलिगढ़ में बलवानों का अनोखा कारनामा, भुईयां लोगों की सारी जमीन करवा ली अपने नाम

:: अरविन्द अविनाश ::

गांव का पूरा भुईया समाज अपने खेत में लगी फसल को न तो काटने की स्थिति में है और न ही उपयोग में लाने की। मकई तैयार है और धान भी बढ़ कर लहलहा रहे हैं, लुटने वालों की मन की तरह। लेकिन न तो कोई मकई तोड़ सकता है और न ही धान को काट सकता है। कारण पूरी विवादित जमीन पर 144 लागू है। दोनों पक्ष जमीन का असली मालिक होने का दावा कर रहे हैं। विवाद के जड़ में सर्वे है, जो आज से 34-35 साल पहले यानी 1979-80 में शुरू हुआ था।

रंक को राजा और राजा को रंक होने की कहावत बहुत पुरानी है। अनायास ऐसा विश्वास नहीं होता। लेकिन जब मिथ लगने वाली बात यथार्थ में बदलती दिखे तो मानना ही पड़ता है। यही हुआ है, गढ़वा के रमकंडा प्रखंड के बलिगढ़ गांव में। बलिगढ़ में बलवानों का अनोखा कारनाम देखने को मिल रहा है। 1966-67 का भीषण अकाल न सिर्फ पलामू में बल्कि पूरे देश में चर्चित हुआ था। एक सौ पांच साल पहले यानी 1914 में एकसाथ आकर भाई की तरह बसे भुईया व खेरवार समुदाय के लोग, जो गांव के असली वशिंदे व कास्तकार थे, आज दाने-दाने को मोहताज होने के कगार पर हैं और एक समय रिरिया कर अनाज रखने के लिए इनसे जमीन का टुकड़ा मांगने वाला आज राजा बन बैठा है। 
गांव का पूरा भुईया समाज अपने खेत में लगी फसल को न तो काटने की स्थिति में है और न ही उपयोग में लाने की। मकई तैयार है और धान भी बढ़ कर लहलहा रहे हैं, लुटने वालों की मन की तरह। लेकिन न तो कोई मकई तोड़ सकता है और न ही धान को काट सकता है। कारण पूरी विवादित जमीन पर 144 लागू है। दोनों पक्ष जमीन का असली मालिक होने का दावा कर रहे हैं। विवाद के जड़ में सर्वे है, जो आज से 34-35 साल पहले यानी 1979-80 में शुरू हुआ था। लम्बे समय के बाद झारखंड के किसी-किसी जिले में इसे अंतिम रूप दिया गया। इसी में गढ़वा जिला भी शामिल है। अपनी पहुंच और पैरवी के बल पर रामनारायण पाण्डेय उर्फ फूलू पाण्डेय ने भुईया लोगों की पूरी जमीन ही अपने नाम से करवा ली। जब जमीन का डिजिलाइजेशन हुआ, तब यह बात सामने आई। तब तक बहुत देर हो चुकी थी। कागज से हाथ मजबूत करने के बाद पाण्डेय जी जमीन पर कब्जा करने को आगे बढ़े। यही से विवाद बढ़ा और परिणाम जमीन पर 144 धारा लागू हुआ। अर्थात यथास्थिति बनाये रखने का आदेश।
पूरी कहानी बड़ी रोचक है लेकिन लगती अविश्वसनीय है। भुईंया समाज के अगुआ सीताराम भुईया के अनुसार हमारे पुरखों ने सवा सौ साल पहले इस जमीन पर पांव रखा था। आरम्भ में एक परिवार खेरवार समाज से था और एक भुईया समुदाय से। दोनों को बराबर-बराबर 10-10 एकड़ जमीन मिली थी। सर्वे में दोनों के नाम से खाता खुला था। बाद में जमीन को कोड़-काड़ कर आबाद कियेऔर यह 30-30 एकड़ तक पहुंच गई। सबकुछ ठीक-ठीक चल रहा था। लेकिन 1966-67 में पड़े अकाल ने सबको मजबूर कर दिया। हमारे बाप-दादे भी अकाल से प्रभावित थे और रिलिफ में काम कर अपने परिवार का पेट पाल रहे थे। उसी समय, आज राजा बने राम नारायण पाण्डेय मुंशी का काम करने आये थे। मजदूरी के रूप में अनाज (राशन) मिलता था, वह भी भंडरिया में। इसीक्र्रम में अनाज रखने के लिए पाण्डेय जी ने पुरखों से एक झोपड़ी बनाने का आग्रह किया। पुरखों ने तुरंत बना कर दे दिया। बाद में वे दारू के साथ ही दूसरे समान की दुकार खोल लिये और यही से शुरू हुआ लूट-शोषण का खेल। जमीन पर उनकी नजर पहले से ही थी। पहले भी ऐसा प्रयास किये थे, इस कारण विवाद भी हुआ था। एल।आर।डी।सी। तक यहां 1991-92 में आये और सभी को जमीन का पर्चा बांटे थे। अब नये सर्वे में फिर से उन्होंने सारी जमीन अपने नाम करवा ली है। बंदोवस्ती में मिली जमीन का रसीद अब नहीं कट रहा है। कब्जा आरम्भ से ही हमलोगों का है। खेती-वारी सब कर रहे हैं, लेकिन अब 144 लागू है, यही परेशानी है। हमलोग गरीब हैं, न तो कानून की जानकारी है और न ही पहुंच-पैरवी है। बाप-दादे के जमाने से शरीर खटा कर पेट भरे हैं, जमीन से जुड़े रहे हैं, अब कहां जाये? न्याय की अपेक्षा है। दूसरी ओर वन विभाग की जमीन पर खेती कर जिंद़गी काट रहे थे। वह जमीन भी वन विभाग नये नक्शा के आधार पर ट्रेंच कटवा कर अपने अधीन कर लिया है। भूदान में मिली जमीन को भी वन विभाग अपने घेरे में ले लिया है। कुछ के तो घर भी नहीं बच रहे। वनाधिकार कानून के तहत भरे गये दावे भी लंबित हैं। उनका तर्क है कि तीन पीढ़ी का कब्जा दिखाओ। अरे हमारी तो कई पीढ़ियां बीत गई, लेकिन सबूत क्या दिखावे, हम? यही समस्या है। ऐसा नहीं कि इस समस्या का सामना करनेे को सिर्फ बलिगढ़ के भुईयां समाज ही मजबूर हैं, बल्कि इसी गांव का केवाल टोला के वशिंदे भी ऐसी ही समस्या से जूझ रहे हैं, दोहरी मार से। एक वन विभाग का और दूसरा बलवानों का। यहां दूसरा पक्ष नन्दलाल साव है, जो इस गांव का वशिंदा ही नहीं है। सिर्फ कागज पर खेल हुआ है, नामांतरण, पहंुच और पैरवी के बल पर। यहां का आदिवासी समाज भी विस्थापन के संकट से जूझ रहा है।
जब जान व जमीन दोनों पर संकट है, तो स्वाभाविक है, आक्रोश होना। प्रभावित पूरे समाज में इस नाइंसाफी के प्रति नफरत उफान पर है। अंदर ही अंदर सुलग रहा यह समाज, कब बिस्फोटक रूप ले ले, कहना मुश्किल है। 

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