कारगिल के बहाने!

Approved by Srinivas on Sun, 07/28/2019 - 17:09

:: श्रीनिवास ::

आजाद भारत में भारतीय सेना की सबसे बड़ी उपलब्धि का पल कौन सा था? क्या वह १९७१ का युद्ध और १६ दिसंबर का दिन नहीं था, जब पाकिस्तान के करीब नब्बे लाख सैनिकों ने हमारे साने सरेंडर किया था, जो विश्व के युद्ध इतिहास की पहली और अनोखी घटना थी. जब पाकिस्तान का भूगोल हमेशा के लिए बदल गया था? जब 'धर्म देश के निर्माण और देश की एकता का आधार हो सकता है' की मान्यता ध्वस्त हो गयी थी, जो देश के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण का आधार था. जब मुसलमानों के लिए, यानी मजहब के नाम पर बना पाकिस्तान, भाषा और संस्कृति के नाम पर टूट गया. यह कोई मामूली परिघटना और उपलब्धि थी? जबकि 'कारगिल विजय' के साथ हमारी गफलत भी एक सच्चाई है, जिस कारण हमारे सैकड़ों बहादुर जवानों को जान गंवानी पड़ी.

इसके आगे जो कुछ कहने जा रहा हूं, उसे बिना किसी आग्रह के, थोड़ी देर के लिए दलीय भावना से परे होकर, इस खाकसार के भाजपा/ मोदी विरोधी होने के सच को परे रख कर पढ़ने का प्रयास कीजियेगा. इसे प्लीज कारगिल में भारतीय सैनिकों की बहादुरी और उपलब्धि को नकारने की कोशिश के रूप में भी न देखें.

अब एक सवाल कि क्या आपको पता है कि 'कारगिल' में ठीक ठीक क्या हुआ था?

पता जरूर होगा, फिर भी संक्षेप में जान लेते हैं.
हमारे सुरक्षा तंत्र की गफलत या लापरवाही का फायदा उठा कर पाकिस्तानी सैनिक न सिर्फ हमारी सीमा में घुस आये, बल्कि इस पार बंकर बना कर जम गये. महीनों बाद किसी स्थानीय कश्मीरी चरवाहे ने ऊपर सीमा (एलओसी) के पास संदिग्ध हलचल की जानकारी सेना को दी. तब उस गफलत और पाकिस्तान की बदनीयती और घुसपैठ का खुलासा हुआ . तब घुसपैठियों को खदेड़ने की सैन्य कार्रवाई शुरू हुई. जानमाल के भारी नुकसान के बाद अंतत: हम कारगिल को मुक्त कराने में सफल हुए. कोई शक नहीं कि यह बड़ी उपलब्धि थी. लेकिन वह 'युद्ध' नहीं था, जैसा कि अज्ञानतावश या जानबूझ कर कह दिया जाता है. एक सैन्य कार्रवाई थी. युद्ध की बाकायदा घोषणा की जाती है, जो कारगिल में नहीं हुई. युद्ध के समय पर सीमा पर शहीद हुए सैनिकों के शवों का अंतिम संस्कार वहीं कर दिया जाता है. कारगिल के शहीदों के शव उनके गांव-शहर इसी कारण लाये गये कि वह युद्ध नहीं था. बल्कि कारगिल विजय की उपलब्धि के तमाम दावों के बावजूद हमारे सुरक्षा तंत्र की खामी का एक उदाहरण भी था.

अब इसी से जुड़ा दूसरा सवाल. आजाद भारत में भारतीय सेना की सबसे बड़ी उपलब्धि का पल कौन सा था? क्या वह १९७१ का युद्ध और १६ दिसंबर का दिन नहीं था, जब पाकिस्तान के करीब नब्बे लाख सैनिकों ने हमारे साने सरेंडर किया था, जो विश्व के युद्ध इतिहास की पहली और अनोखी घटना थी. जब पाकिस्तान का भूगोल हमेशा के लिए बदल गया था? जब 'धर्म देश के निर्माण और देश की एकता का आधार हो सकता है' की मान्यता ध्वस्त हो गयी थी, जो देश के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण का आधार था. जब मुसलमानों के लिए, यानी मजहब के नाम पर बना पाकिस्तान, भाषा और संस्कृति के नाम पर टूट गया. यह कोई मामूली परिघटना और उपलब्धि थी? जबकि 'कारगिल विजय' के साथ हमारी गफलत भी एक सच्चाई है, जिस कारण हमारे सैकड़ों बहादुर जवानों को जान गंवानी पड़ी. 

अब तीसरा सवाल. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि एक दल और जमात विशेष के लोग 'कारगिल' को '७१' से भी बड़ी उपलब्धि साबित करने का प्रयास करते रहे हैं, कर रहे हैं? सिर्फ इस कारण कि कारगिल इस जमात (श्री वाजपेयी) के सत्ता में रहने के दौराण हुआ था! क्या यह विशुद्ध दलीय राजनीति के तहत नहीं हो रहा?

आपको ऐसा नहीं लगता, तो याद कीजिये कि बीते पांच वर्षों के दौरान १९७१ की निर्विवाद जीत पर कभी इस तरह जश्न मनाया गया, जैसा 'कारगिल विजय' के नाम पर मनाया जाता रहा है!

अब सवाल यह है कि ऐसा क्यों किया जा रहा है? क्या सिर्फ भाजपा शासन के दौरान सेना के शौर्य को अपनी उपलब्धि के तौर पर स्थापित करने के लिए? वैसे यह प्रवृत्ति बीते पांच वर्षों के दौरान  सर्जिकल स्ट्राइक, बालाकोट के रूप में दिखी है. कारण यह कि पाकिस्तान पर विजय, उसे सबक सिखाना सिर्फ एक बिगड़ैल पड़ोसी को सबक सिखाना भर नहीं है. यूं तो पाकिस्तान के खिलाफ कठोर और तीखी भाषा का इस्तेमाल हमारे तमाम दलों-नेताओं का शगल रहा है, मगर मौजूदा सत्तारूढ़ जमात के लिए पाकिस्तान अपने आंतरिक 'दुश्मनों' का प्रतीक भी है. जबकि इंदिरा गांधी/कांग्रेस के काल में '७१ एक आक्रामक पड़ोसी को मुंहतोड़ जवाब देना भर था. बेशक कांग्रेस ने भी एक हद तक उसका श्रेय लिया, लेकिन उसे सालाना उत्सव नहीं बनाया गया. सरकारी खर्च पर एक दल की उपलब्धि के बतौर प्रचारित नहीं किया गया. अब भी सीधे इसे भाजपा की उपलब्धि कहा तो नहीं जा रहा, पर अंदाज वही है. ऐसा नहीं होता तो यह सरकार और जमात '७१ की जीत का उत्सव भी तो मनाती.

याद कीजिए कि कारगिल के समय हमारी सेना को एलओसी पार करने की अनुमति नहीं दी गरी, जिस कारण हमें अधिक क्षति हुई. लेकिन उस नीति की भी वाहवाही यह कर हुई कि हमने अंतरराष्ट्रीय कानूनों का सम्मान किया, संयम का परिचय दिया. लेकिन आज उसे परोक्ष रूप से कमजोरी करार दिया जा चुका है.  अब कहा जा रहा है- 'घुस कर मारेंगे', किसी सीमा और करार की परवाह नहीं करेंगे.

जाहिर है, कारगिल विजय की धूम अनायास और सहज नहीं है. इसमें उग्र राष्ट्रवाद, आक्रामकता, युद्धोन्माद की मानसिकता के माहौल की भूमिका भी है, जिसे लगातार बनाया जाता रहा है. निश्चय ही यह सकारात्मक नहीं है, न ही देश के व्यापक हित में.

Sections

Add new comment