प्रधानमंत्री की सुरक्षा में हुई चूक को क्या चुनावी ‘इवेंट’ में बदला जा रहा है

:: कृष्ण प्रताप सिंह ::

सुरक्षा में चूक को लेकर ख़ुद प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी जिस तरह उसी क्षण से इस घटना को सनसनीखेज़ बनाकर राजनीतिक लाभ उठाने में लग गए हैं, उससे ज़ाहिर है कि वे घटना की गंभीरता को लेकर कम और उससे मुमकिन चुनावी फायदे के बारे में ज़्यादा गंभीर हैं.

पंजाब के फिरोजपुर में एक फ्लाईओवर पर फंसा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का काफिला. (फोटो: पीटीआई)

निस्संदेह यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रधानमंत्री पंजाब जैसे सीमावर्ती और संवेदनशील राज्य में रैली करने जा रहे हों, तो किसानों द्वारा विरोध के कारण उन्हें निरापद रास्ता न मिल पाए और किसी फ्लाईओवर पर फंसकर वापस लौट जाना पड़े. लेकिन कहीं ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी अपनी आदत के अनुसार इस घटना से भी कोई सबक सीखने को तैयार नहीं हैं.

जिस तरह वे उसी क्षण से घटना को सनसनीखेज बनाकर राजनीतिक लाभ उठाने में लग गए हैं, उससे साफ है कि उसकी गंभीरता को लेकर कम और उससे मुमकिन चुनावी लाभ को लेकर ज्यादा गंभीर हैं. प्रधानमंत्री का भठिंडा एयरपोर्ट पर पंजाब के अफसरों से अपने मुख्यमंत्री को ‘उनके जिंदा लौट पाने के लिए धन्यवाद देने को कहना’ भी उनके इसी तरह के प्रयत्नों का हिस्सा है.

हालांकि कई लोगों को उनके सचमुच ऐसा कुछ कहने को लेकर भी संदेह है. वे पूछ रहे हैं कि कहीं प्रधानमंत्री की चहेती न्यूज एजेंसी ने खुद उनका यह कथन तो नहीं गढ़ लिया और खबर चला दी?

इस दौर में इसे न असंभव कह सकते हैं और न अप्रत्याशित. खासकर जब न प्रधानमंत्री की ऐसा कहते हुए कोई बाइट उपलब्ध है, न उन अफसरों के नाम ही सामने आए हैं, जिनसे उन्होंने कथित तौर पर ऐसा कहा.

बहरहाल, केंद्रीय गृह मंत्रालय और भाजपा जिस तरह ‘प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक’ को लेकर पंजाब की चरणजीत सिंह चन्नी की कांग्रेसी सरकार पर हमलावर हैं और प्रधानमंत्री के सुरक्षा अमले की कतई कोई गलती नहीं मान रहें, भले ही जानकारों के मुताबिक स्थिति इसके उलट हैं, उससे भी उनके इरादे का कुछ कम पता नहीं चलता.

तिस पर उनकी उतावली ऐसी है कि उसे उस जांच के निष्कर्षों का इंतजार भी गवारा नहीं, जो केंद्र द्वारा रिपोर्ट मांगे जाने के बाद चन्नी सरकार ने बैठाई है.

सवाल है कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा में सचमुच कोई चूक हुई है तो देश के गृहमंत्री अमित शाह और पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत चन्नी दोनों को उसकी जिम्मेदारी क्यों नहीं लेनी चाहिए और यह चूक इरादतन है तो दोनों को इस्तीफे क्यों नहीं देने चाहिए? यह क्या कि इनमें से एक की सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग की जाए और दूसरे को एकदम से बख्श दिया जाए?

प्रधानमंत्री की सुरक्षा का जिम्मा निभाने वाली जो एसपीजी उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को सुरक्षा के लिहाज से प्रधानमंत्री के पीछे दौड़ने पर मजबूर कर सकती है, उसे इतना भी पता था कि पंजाब में प्रधानमंत्री का काफिला रोकने की कोई ‘साजिश’ है तो यह क्योंकर उसकी विफलता नहीं है, जबकि अब दावा किया जा रहा है कि खालिस्तान समर्थक संगठन ‘सिख फॉर जस्टिस’ ने कुछ दिन पहले ही लोगों से प्रधानमंत्री की यात्रा का विरोध करने को कहा था!

गौरतलब है कि इस सिलसिले में पंजाब सरकार की हर सफाई नामंजूर करते हुए भी भाजपा व केंद्रीय गृह मंत्रालय प्रधानमंत्री का रास्ता रोकने वाले किसान संगठनों के बारे में कुछ नहीं कह रहे.

इस न कहने में भी पेंच है: प्रधानमंत्री की रैली न होने देने की धमकी संयुक्त किसान मोर्चे ने नहीं दी थी और जिन नौ संगठनों ने दी थी, उनमें से कई की भाजपा के प्रति सहानुभूति जगजाहिर है. भले ही उनका लहजा इसको लेकर ही शिकायती था कि कृषि कानूनों की वापसी के बाद भी किसानों की एमएसपी की गारंटी, किसानों पर चल रहे मुकदमों की वापसी या अजय मिश्र टेनी की बर्खास्तगी जैसी मांगें सरकार ने पूरी नहीं की हैं.

ऐसे में इस सवाल का जवाब बहुत कठिन नहीं रह जाता कि किसने रैली रोकने की धमकी दे चुके किसान संगठनों को प्रधानमंत्री के वायुमार्ग के बजाय सड़क मार्ग से रैली स्थल आने की सूचना दी और उन्हें उनका रास्ता रोकने पहुंचाया. भाजपा की ओर से केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने यह सवाल बहुत तमककर पूछा था लेकिन अब कई लोग इसे भाजपा और कुछ किसान संगठनों की मिलीभगत का मामला बता रहे हैं.

चन्नी सरकार के कुछ सूत्र तो यह भी बताते हैं कि प्रधानमंत्री को वैकल्पिक रास्ता प्रदान किया जा रहा था, लेकिन उन्होंने रैली रद्दकर लौट जाने का विकल्प ही चुना, क्योंकि रैली में उन्हें सुनने लोग पहुंचे ही नहीं थे. राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के गठबंधन सहयोगी कैप्टन अमरिंदर सिंह भी रैली में भीड़ न आने की तस्दीक करते हैं.

यूं, किसे नहीं मालूम कि राज्य के किसान तीनों विवादास्पद कृषि कानूनों को लाए जाने के वक्त से ही भाजपा, उसकी सरकारों और प्रधानमंत्री का विरोध करते आ रहे थे. पड़ोसी राज्य हरियाणा में तो उन्होंने प्रायः सारे सरकारी कार्यक्रमों को रोकने और उनका बहिष्कार करने का रास्ता चुना था. ऐसे में जिन भी किसान संगठनों ने प्रधानमंत्री का रास्ता रोका, किसानों के उक्त विरोध की पुनरावृत्ति भर ही की.

अलबत्ता, यह पुनरावृत्ति यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है कि उक्त कानूनों को वापस लेकर भी प्रधानमंत्री किसानों का पूरा विश्वास नहीं जीत पाए हैं और अगर वे ऐसा मान बैठे थे तो गलतफहमी में थे.

दूसरे पहलुओं पर जाएं, तो कई और सवाल जवाब की मांग करते हैं. सबसे बड़ा यह कि प्रधानमंत्री द्वारा ‘अपने जिंदा लौट पाने के लिए मुख्यमंत्री को धन्यवाद देने’ का मतलब क्या है? क्या उनका रास्ता रोक रहे किसान हथियारबंद थे और उनकी ओर से उन्हें जान का खतरा था?

अगर हां, तो चाकचौबंद एसपीजी सुरक्षा के बावजूद वे असुरक्षा के इस स्तर तक क्योंकर पहुंच गए? अगर नहीं तो उन्होंने रास्ता रोक रहे किसानों के पास जाकर उनसे संवाद कर उन्हें समझाने का साहस क्यों नहीं दिखाया? किसान तो दिल्ली की सीमाओं पर अपने आंदोलन के वक्त से ही तरस रहे हैं कि प्रधानमंत्री उनसे बात करें और उनकी समस्याओं का समुचित समाधान निकालें.

उन्होंने कभी प्रधानमंत्री से कोई दुश्मनी प्रदर्शित नहीं की. फिर उनके समर्थकों के इस सवाल का जवाब कौन देगा कि वे प्रधानमंत्री का रास्ता रोककर उनकी रीति-नीति के विरुद्ध ऐतराज जताने का अपना लोकतांत्रिक अधिकार इस्तेमाल कर रहे थे या कोई ऐसा अपराध कर रहे थे, जिसके लिए प्रधानमंत्री उन्हें ‘क्षमा’ ही नहीं सकते? क्या वे देश के निर्वाचित प्रधानमंत्री न होकर सम्राट हैं?

जो पंडित जवाहरलाल नेहरू उन्हें फूटी आंखों भी अच्छे नहीं लगते, वे प्रधानमंत्री थे तो अपनी राह रोकने वालों को देखकर वापस लौट जाने के बजाय उनसे बात करते थे.

एक बार ऐसी ही बातचीत में एक उत्तेजित महिला ने उनका गिरेबान पकड़ लिया और पूछा कि उन्होंने उसके जैसों के लिए आज तक किया भी क्या है? तब नेहरू ने आपा खोए बगैर शांतिपूर्वक जवाब दिया था, ‘यही कि अब वे भारत के प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ सकते हैं.’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उक्त फ्लाईओवर पार करके ऐसी कोई नजीर क्यों नहीं बना सकते थे.

हां, अब भाजपा ने याद दिला रही है कि वे भाजपा के ही नहीं, सारे देश के प्रधानमंत्री है. इससे पहले एक बार राहुल ने लोकसभा में सत्तापक्ष को संबोधित करते हुए ‘आपके प्रधानमंत्री’ कह दिया तो भी सत्तापक्ष ने ऐतराज जताकर कहा था कि वे ‘आपके नहीं, हमारे प्रधानमंत्री’ कहें.

तब राहुल ने यह पूछकर उन्हें निरुत्तर कर दिया था कि ‘क्या वे आपके प्रधानमंत्री नहीं हैं?’ लेकिन आज की तारीख में सच पूछिये तो भाजपा को यह बात कि प्रधानमंत्री सारे देश के हैं, सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री को ही बताने की जरूरत है.

उनसे यह पूछने की भी कि क्यों वे चुनावी लाभ के लिए अपने सरकारी कार्यक्रमों को भाजपा के कार्यकमों में बदलने और उनमें असहमतों व विरोधी दलों पर नाहक बरसने को परंपरा बनाते जा रहे हैं? क्या इस तरह वे खुद अपनी ‘सारे देश के प्रधानमंत्री’ वाली प्रतिष्ठा से नहीं खेल रहे?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.) साभार: द वायर.

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